कवि सूरदास का जन्म आगरा-मथुरा रोड पर स्थित रुनकता नामक गांव में 1478 ईस्वी हुआ था।
लेकिन कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि कवि सूरदास का जन्म रुनकता नामक गांव में होकर उनका जन्म एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में दिल्ली के पास सीही नामक गांव में 1479 ईस्वी में हुआ था।
जन्म की तरह ही उनकी मृत्यु के बारे में भी दो मत है। ऐसा कहा जाता है की सूरदास जी जन्म से अंधे थे। इस कारण घर वालो ने महज 6 साल में ही उन्हें छोड़ दिया था। जन्म से अंधे होने के बावजूद भी सूरदास जी की कविता में प्रकृति और दृश्य जगत की अन्य वस्तुओं का इतना सूक्ष्म और अनुभवपूर्ण चित्रण मिलता है साथ ही भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप को इतने मार्मिक वर्णन किया है जो किसी नेत्र हीन के लिए असंभव था। यही कारण है की उनके जन्म से अंधे होने पर सहज विश्वास नहीं होता।
सूरदास की अभिकथित रचना ‘साहित्य लहरी’के एक पद में तो उन्हें चंदबरदायी का वंशज माना गया है और उनका वास्तविक नाम सूरदास ना होकर सूरजचंद बताया गया है। 18 साल की उम्र में सूरदास गऊघाट गए। यहां पर ही महान संत श्री वल्लभाचार्य से सूरदास ने उनसे गुरु दीक्षा ली। वल्लभाचार्य ने ही उन्हें ‘भागवत लीला’ का गुणगान करने की सलाह दी।
अपने गुरु के आज्ञा अनुसार सूरदास जी ने श्रीकृष्ण का गुणगान शुरू कर दिया और जीवन में कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इससे पहले वह केवल दैन्य भाव से विनय के पद रचा करते थे। उनके पदों की संख्या ‘सहस्राधिक’ कही जाती है, जिनका संग्रहीत रूप ‘सूरसागर’ के नाम से प्रसिद्ध है।
सूरदास जी की काव्य प्रतिभा इतनी प्रभावशाली थी की तत्कालीन शासक अकबर इस और आकर्षित हो गए थे । उसने उनसे आग्रहपूर्वक भेंट की थी जिसका उल्लेख भी प्राचीन साहित्य में मिलता है। साहित्य में सूरदास और तुलसीदास की भेंट का वर्णन भी मिलता है।
सूरदास को हिंदी साहित्य का सूर्ये कहा जाता है।
सूरदास जी द्वारा लिखित मुख्य रूप से पांच ग्रन्थ बताएं जाते हैं। जिनमें से सूर सागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी के प्रमाण मिलते हैं। जबकि नल-दमयन्ती और ब्याहलो का अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला । नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।
सूरदास जिस तहर से वास्ल्य और श्रृंगार का वर्णन करते थे वो किसी नेत्र हिन् व्यक्ति के लिए संभव नहीं है।
सूरदास द्वारा रचित सूरसागर में करीब एक लाख पद होने की बात कही जाती है। हालाँकि, वर्तमान संस्करणों में करीब पांच हजार पद ही मिलते हैं। सूर सारावली में 1107 छन्द हैं। इसकी रचना संवत 1602 में होने का प्रमाण मिलता है। वहीं साहित्य लहरी 118 पदों की एक लघु रचना है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ श्रृंगार की कोटि में आता है।
सूरदास ने भक्ति के मार्ग को ही सर्वोपरि माना। उन्होंने अपने पदों के साथ संदेश दिया की भक्ति मार्ग सबसे श्रेस्ठ है। सूरदास ने जीवन के अंतिम क्षण तक ब्रज में ही समय व्यतीत किया। सूर का निधन काल का कोई सटीक प्रमाण तो नहीं है। लेकिन करीब 100 वर्ष से अधिक की उम्र तक वह जिंदा रहे। कुछ विद्वानों के अनुसार 1581 ईस्वी में उन्होंने शरीर छोड़ दिया था। वहीं कुछ का कहना है कि सूर ने 1584 ईस्वी में शरीर पूरा किया था। उनकी मृत्यु पारसोली ग्राम में दिवंगत हुई थी।
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