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पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जीवन परिचय

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जीवन परिचय

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितंबर 1911 मैं गांव आवलखेड़ा, आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था।  श्रीराम शर्मा आचार्य  जी का बचपन व कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। श्रीराम शर्मा आचार्य जी का  जन्म तो  एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, लेकिन न्रम और दयाभाव स्वभाव के कारण उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था।

दयाभाव स्वभाव  के साथ ही  भक्ति भाव और  साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था।  इसके चलते वो बचपन में अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। सुसंस्कारिता और साधना में इतने लीन हो गए थे  की  छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे।

हिमालय जाने के बाद वो साधना और भक्ति भाव में इतना लीन हो गए की जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में एक अछूत वृद्ध महिला  को कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा करि।  घरवालों ने इसका विरोध किया तो आचार्य जी ने विरोध सहन करा लेकिन असहाय लोगो की मदद करना नहीं छोड़ा।  और अपने काम के प्रति सजग रहे है।

श्रीराम शर्मा आचार्य किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना आरंभ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी। किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि,  जो जन्म जन्मांतर प्रतिभा सम्पन्न  होते है  उन्हें औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित  रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें,  इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, रोजगार  शुरू  करे।

वे चाहते थे,  सभी आत्मावलम्बी बने। इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया। ताकि सभी गांववासी अपने पाँव पर खड़े हो सके और आत्मनिर्भर हो सकते।

स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगत सिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह  श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने भी  कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था।

नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे। झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। श्रीराम शर्मा आचार्य जी   ने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला।  महान कार्य और उपलब्धि के साथ ही    पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य  का अंतिम समय 2 जून 1990 को हरिद्वार निकला।

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