मीराबाई कृष्ण भक्त थी। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दी थी। मीराबाई का जन्म संवत् 1498 में पाली में कुरकी गाँव में राजा रत्नसिंह के घर हुआ था।
इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुंवर भोजराज के साथ हुआ था जो उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया।
राजघरानो के रिवाज के अनुसार पति की मृत्यु बाद उनको सती करने का प्रयास किया गया था लेकिन मीरा का मन कृष्ण भक्ति में लीन था। पति के परलोकवास के बाद मीरा बाईं की भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
लेकिन मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। इसलिए उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के द्वारा किये गए मारने और प्रताड़ित से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वहाँ पर लोगों का सम्मान मिलता था। कृष्ण भक्ति में लीन रहने और उनकी भक्ति से प्रभावित हो कर लोग उनको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
मीरा बाई कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रती एक गहरी टीस है। मीरा बाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है।
भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का सम्बन्ध मीरा के साथ जोड़ा जाता है। ऐसा मानते हैं कि इनमें से कुछ कवितायेँ ही मीरा द्वारा रचित थीं बाकी की कविताओं की रचना 18वीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती है। ऐसी ढेरों कवितायेँ जिन्हें मीराबाई द्वारा रचित माना जाता है, दरअसल उनके प्रसंशकों द्वारा लिखी मालूम पड़ती हैं। ये कवितायेँ ‘भजन’ कहलाती हैं और उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं।
मीरा को अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे – हिन्दी, गुजराती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|
ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहाँ सन 1560 में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं।
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