इस बात का उल्लेख हम पहले भी कर चुके है कि अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चंद्र और देव गुरु बृहस्पति का बहुत ही विशेष योगदान रहा था। इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुंभ पर्व का योग बनता है। आज के इस लेख में हम आपको यह बात विशेष एवं हम उद्धरणों के साथ सम्झाएगे।
सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा।।
ऊपर दी गई अमृत बिंदु के अनुसार यह बात जाहिर होती है कि जिन राशियों में सूर्य चंद्र और गुरु की स्थिति रही है उन्ही राशियों में सूर्य, चंद्र गुरु के संयोग होने पर कुम्भ का पर्व मनाया जाता है। ऊपर दी गई पंक्तियों में यह बात भी जाहिर है कि जिन योगो के अभाव में कुम्भ पर्व नहीं मनाया जा सकता है। जब अमृत कलश की लड़ाई चल रही थी तो यह बात कही गई है कि देवताओ के 12 दिन मनुष्य जाती के 12 साल की तरह होते है।
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कुम्भ पर्व भी कुल मिलाकर 12 ही होते है। कहा जाता है पृथ्वी पर मनुष्यो के 4 कुम्भ तथा शेष बचे हुए 8 कुम्भ स्वर्ग लोक में देवताओ के होते है। पृथ्वी पर चार कुम्भ प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में मनाये जाते है। कुम्भ के संयोग के लिए सूर्य, चंद्र और गुरु के संयोग को सूर्य, चंद्र और गुरु की निर्दिष्ट राशियां पर्व के लिए आवश्यक हैं। इनमे सूर्य, चंद्र तो प्रतिवर्ष उपलब्ध हो जाते हैं किंतु गुरु ही 12 वर्षों में उपलब्ध होता है।
ऐसी मान्यता है कि हम केवल रुढ़िपोषक ही कह सकते है। क्योकि हमारी ज्योतिषी परिभाषाए बारह मास का वर्ष तथा 30 दिन का महीना कहती है। लेकिन अधिकमास में 12 मास तथा क्षय मास वाले वर्ष को भी वर्ष कहती है। इस बात से सब वाकिफ है कि पूर्णिमा तक का अंतर 39-30 तथा 31 दिन भी होते है। फिर भी उसे अपूर्ण न कहते हुए पूर्ण मॉस के रूप में ही स्वीकार करते है।
यह बात ज्योतिष्य सिद्धांत की है। तो बात यहाँ आती है कि तीस दिन का महीना होने से हम तीसवें दिन ही पूर्णिमा मानेगे। लेकिन हम सच माने तो गणित के हिसाब से पूर्णिमा जब होगी तब ही मनाई जाएगी। इसी प्रकार से कुम्भ का पर्व भी ‘सूर्येन्दु गुरु संयोग’ के अनुसार मनाया जाता है। इनका योग बैठता है तभी कुम्भ के पर्व का आयोजन होता है।
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